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कविता

पंद्रह वर्ष

नीलोत्पल


पंद्रह साल हो गए शब्दों के साथ

पंद्रह वर्ष किसी पक्षी के लिए
इतनी ही बार मृत्यु की
अविकट प्रतीक्षा है

हर सुबह के अंतिम छोर पर
दीपक की लौ धुंधवाती है
अँधेरा दब जाता है रोशनी के भीतर

प्रेम अगर स्फुरण है तो
तुम एक अस्पष्ट तस्वीर
जो बाद के वर्षो में भी
अटकी रह जाओगी
सारी दीवारें ढह जाने पर

कोयले उदीप्त है गहरी खामोशी में
राख कोयले की अंतिम प्रतिज्ञा है
भीतर की राख नहीं मिटती

मछुआरों के गीत सुनाई पड़ते हैं
आते-जाते लहरों को साध लिया है उन्होंने
जाल का सम्मोहर टूटता है
मछलियों की गंध जीवन की महक है

पारदर्शी परदा गिरता है
पहाड़ों के पार अचीन्हें रेखांकन है
समय गुजरता है
शब्दों को पता हैं वे हमेशा मृत्यु के निकट होते हैं

 


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